Tuesday, September 19, 2006

04.एक शून्य


मेरी दर्द भरी
आवाज़
सुन सकोगी तुम
तो सुन लो ।

याद है मुझ
आज भी वह मोड़
जहाँ से
अलग हुए थे
हम-तुम ।
शहनाइयों की
ध्वनि के बीच
तुम्हारी डोली
सजाई जा रही थी
मेरे अन्त का प्यार
धू-धू कर जल रहा था
उस चकाचौंथ
रोशनी में भी
जैसे-
छा गया था अँधेरा
मेरे मन का अँधेरा
देख सकोगी तुम
तो देख लो ।

एक अनबुझी प्यास
तुम्हारे बिछुड़ने का –
एहसास
अपलक नेत्रों से
निहारता रहा
उस दिशा की ओर
जिस दिशा में
तुम्हारी डोली
जा रही थी
मेरे सपनों का संसार
उजड़ चुका था जैसे
फट रहा था मेरा कलेजा
निकल रहा था
एक आर्तनाद !
उस आर्तनाद को
सुन सकोगी तुम
तो सुन-लो ।

जब तुम ही चली गईँ
तो मेरे जीवन में
अब रहा ही क्या
मंदिर से मूर्ति
चली गई हो जैसे
काया से आत्मा
निकल गई हो जैसे
रहा गया अब
शून्य
केवल शून्य इस शून्य का एहसास
कर सकोगी तुम
तो कर लो ।
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