Tuesday, September 19, 2006

पुरोवाक्


‘वोल्गा से गंगा तक’ उपन्यास का एक कथांश :
जब रोचना ने माद्र बाबा से पुरूहुत का परिचय कराया,बाबा ने पुरूओं की प्रशंसा करते हुए, पुरूहत का स्वागत किया और दोपहर-भोजन के बाद बाबा ने अपनी कथा शुरु की :

“इस तांबे और खेतों को देख कर मेरा दिल जल जाता है। जब से ये चीज़ें वक्षु के तट पर आईं तब से चारों ओर पाप, अधर्म पढ़ गया । देवता भी नाराज हो गये । महामारी पड़ने लगी । अधिक मार-काट भी...”

“तो पहले ये चीज़े नहीं थी, बाबा ?” – पुरूहूत ने पूछा । “नहीं बच्चा ! ये चीज़ें मेरे बचपन में ज़रा-ज़रा आई । उस वक्त पत्थर, हड्डी, सींग, लकड़ी के हथियार होते थे।”
‘तो लकड़ी कैसे काटते थे ?’
पत्थर के कुल्हाड़े से !
‘बहुत देर लगती होगी ?’
इसी जल्दी ने सारा काम चौपट किया ....!

इसी जल्दबाजी में देश पर सैकड़ों हमले हुये मगर किसी ने ठीक स्थान पर हमले किये नहीं । किसी ने धन लूटा, किसी ने ज़मीन लूटी । किसी ने महल लूटे । किसी ने झोंपड़ी लूटी । लेकिन, जहाँ हमारा अन्तस्थल था, उस पर किसी ने हमला नहीं किया ।

आज की तारीख़ में, बिल्कुल पहली बार, पश्चिमी सभ्यता ने मुल्य की धड़कनों पर, चोट करनी शुरू की है और चोट करने का जो आसान उपाय था वह यही था कि इससे साहित्य, इतिहास और संस्कृति को हमसे अलग कर दिया जाय-अपटूडेट ! वे हमें गिराना चाहते हैं, हमारे मकानों को न गिरा कर, हमारे होटलों को न गिरा कर, हमारे सिनेमाघरों को न गिरा कर बल्कि हमारे विश्वविद्यालयों को माटी में मिला कर, हमारे मंदिरों को ख़ाक में मिला कर जैसा कि मोहम्मद गोरी ने किया । सोमनाथ को लूट-समेटकर, बख्तियार खिलजी ने किया नालब्दा जैसे विश्वविद्यालयों को खण्डहर में तब्दील-कर ।

ये सारे विध्वंस, जिस जल्दबाजी में किये गये उसी जल्दबाजी में आज भी हमले हो रहे हैं-
-हमारे साहित्य पर
- हमारी संस्कृति पर
- हमारी सोच-समझ पर ।
क्या हम तैयार हैं इन परिवर्तनों को स्वीकारने तथा मॉड बनने के लिए ?
ऐसे में, खतरे हैं हमारे संबंधों के टूट जाने के । तब, एक ही उपाय रह जाता है, एक विद्वान के अनुसार, और वह है –
l have my books to Protect me ;

हमारी किताबें ही हमारी रक्षा कर सकती हैं । उन्हीं किताबों की कड़ी में एक और किताब अपने पाठकों के बीच उपस्थापित करते हुए हम उसकी उन पंक्तियों से मिलेंगे जिन पंक्तियों में मानवीय मूल्यों, मानवीय संवेदनाओं, समय के स्वरों ,औऱ दिलों की धड़कनों को महसूसते रहने के उड़ते क्षणों को पकड़ते रहने की शाब्दिक और आनुभूतिक चेष्टा की गई है । मगर, चेष्टा से तैयार की गई यह किताब जल्दबाजी से तैयार की गई किताब नहीं है, बल्कि स्थिर चित की तस्वीरों का एक पारदर्शी आईना है जिसमें व्यक्तिगत अनुभूतियाँ समष्टिगत होकर प्रक्षेपित हुई हैं । अनुभूतियाँ ज्यों-ज्यों सयानी होती गई हैं उनमें त्यों-त्यों कविता का लावण्य फूटता गया है । आकस्मिक प्रस्फुटन ही किताब की ज़ज़बाती मौलिकता है। बगैर इसके हर कविता तिमिरावृत्त ही किताब की जजबाती मौलिकता है। बगैर इसके हर कविता तिमिरावृत्त आकाश की तरह है। एक विद्वान के शब्दाधीन –

Poetry is a sky dark with a wild –buck migration;

ऐसी ही कविताओं की इस किताब का नाम है- ‘एक गीत : तुम्हारे नाम ।’

‘पुरोवाक्’ के बहाने जो भी कुछ करना चाह रहा हूँ, उसके केद्रबिन्दु में कवि श्री नथमल ‘झवर’ नहीं बल्कि इस किताब की वे कविताएँ हैं जिनकी कुक्षि में सर्जक-विषाद के स्वर उत्सित हैं और ये ही वे स्वर हैं जो वाल्मीकि से लेकर कुबेरदत्त और डॉ. निर्मम तक प्रवाह के नैरन्तर्य को बनाये हुए हैं ।किताब की पहली कविता है –

‘न जाने कितने
जन्म-जमान्तरों से
जुड़ी हैं तुम्हारी यादें ।’

‘ये यादें’ विभिन्न रूपों में रूपायित होकर हृदय के उन तारों पर संचरित होती हैं जिन्हें छूते ही एक विरल झंकार फैल जाती है। विदग्ध साँसों के भीतर-कुछ अक्षरों के लिए, कुछ शब्दों के लिए । सच जानिए, ऐसे ही क्षणों में कविता के क्षण होते हैं । ऐसी ही भंगिमाएँ उन भावनाओं के आसपास होती हैं, जो अन्ततोगत्वा कविता में ढल जाती हैं । ‘ये यादें’ कभी गुलाब के फूल की खुशबू बन जाती हैं तो कभी अबोध बालक की अकलंकित किलकारियाँ । विह्वल एकाकीपन की इस मनोदशा में मनुष्य का मन या तो संत बन जाता है या पूर्णतः असन्त ! शब्दों को साधने वाला कोई-कोई होता है। ऐसे साधक को भी प्यार की थपकियाँ और सहानुभूति के बोल चाहिए ही ताकि वह अपने अकेलेपन को नितान्त अकेलापन होने से बचा ले जाये । इस संबंध में एक विदेशी कथन है –

Solitary man is either brute or an angle ।

‘एक गीत : तुम्हारे नाम’ की इन पंक्तियों के तादात्म्य-बोध को देखें –

जरुरी है
टूटने से पहले कोई बचा ले
उजड़ने से पहले बसा ले
जरुरी है
कोई दे जाय हमें
स्नेह के दो फूल......।’

यथास्थिति में परिवर्तन की आकांक्षा स्वाभाविक है । यदि बदलाव नहीं है तब टूटने का ख़तरा पैदा होता है । सहानुभूति के शीतल स्पर्श जब स्वानुभूति के अतल तल को संस्पर्शित करते हैं तब जीवन और जगत के प्रति आकर्षण पैदा होता है और तभी, वह टूटने से बच भी जाता है। मनुष्य-समाज की कोई इकाई जब टूटने पर होती है तब समझा जाता रहा है कि मनुष्य जाति के ढाँचे चरमरा रहे हैं। इसीलिए मनुष्य के मध्य सहानुभुति के इस छन्द को लक्षित किया गया है-

Sympathy is greater than gold;

मगर, प्रतिकूलताओं की अहम् भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता । प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी मनुष्य को सेंवारती हैं, अनर्गलता को काटती-छाँटती हैं । उद्बोधन का महत्व विपरीतताओं में ही है । किताब की पंक्तियाँ कहती हैं –

बढ़ा......
धैर्य धरा
रे मानव !
जो अन्धकार से डर गया
समझ लो वह मर गया ।’

रचनाकार के रूप में ईश्वर हो या मनुष्य दोनों में सृजन-क्षण तक कोई भेद नहीं । रचनाकार की दृष्टि मे सूखते पत्तों का भी वही महत्व है जो उगते पत्नों का है। जीवन के दोनों पक्ष सममूल्य के हैं। उदय-अस्त अन्योयाश्रित हैं । किताब संकेत करती है –

‘लिखो.....
उस भावना के बारे में
जो मर चुकी है
उन पत्तों के बारे में
जो झर चुके हैं
उनके हौसले बुलन्द करने के लिए
लिखो !’

इस किताब में और भी कविताएँ हैं । जो मानवीय धरातल की हर सरहद को छूती हैं, प्रकम्पित करती हैं । जैसे –
‘एक शून्य’; काटा बो गया’; ‘माँ होने का एहसास’; ‘वह बुढ़िया’; आदि मगर इन कविताओं के साथ कुछ गीत भी हैं जो मर्म को छूते-झकझोरते हैं । गीत-विधा पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। फलतः उन गीतों की गलियों से ही गुजरें जिनकी खुशबू किताब के पन्ने और मन के कोने मोअत्तर हैं ।
किताब का एक गीत है- ‘तेरा यह गाँव !’

गाँव, खुद में एक परम्परागत गीत है और जब वह किसी रचनाकार के जीवन की घटनाओं से जुड़ जाता है तब वह और भी गीतिल हो जाता है, चाहे उसके पग-पग पर नकारात्मक या द्वन्द्वात्मक दृश्यों का फैलाव ही क्यों न पसरा हुआ मिले । स्वीकारात्मक क्षणों की रचनाओं से अधिक प्रकट और वेगमय नकारात्मक क्षणों की रचनाएँ होती हैं । इस प्रकार की रचनाओं का मूल मन के उस तल को स्पर्श करता है यहाँ भावों का उन्मेष हिलकारे मारता है । ऐसे ही सन्दर्भों से जुड़े हुए इस गीत को किताब गुनगुनाती है –

अलसायी
आँखें हैं
कम्पित हैं पाँव
सुना अब
लगता है
तेरा यह गाँव ।’

यह गीत उस सन्दर्भ से जुड़ा हुआ है, जिसका आधार इस गीत को जन्म देता है और आगे देखें –

बागों
बागीचों में
छुप-छुप कर मिलता
पायल-सी
छम-छम कर
तेरा वह चलना
याद मुझे आ रही
पीपल की छाँव ।’

गाँव के पीपल-छाँव तले प्रणय-कीड़ा सा दृश्य उत्कीर्ण होता है, वह अब स्मृति-शेष की तरह लगने लगा है । ऐसा दृश्य नहीं है वह जिसे सिर्फ़ प्रणयी ने भोगा हो, वह ऐसा दृश्य है जो पाठक के मन को भी दृश्य-पूरित करता है । ऐसा लगता है जैसे आईने की तस्वीर बोल उठी हो । गीत में प्रस्तुत शब्दों के पीछे जो चित्र है वह शब्दों के आगे तब आ जाता है जब ‘तेरा’ शब्द स्मृतियों के घेरे में घिर कर, रुप और सौन्दर्य की ध्वनि में साकार हो जाता है। किताब के भीतर ऐसे अनेक गीत हैं, जो हृदय से निकले हैं और हृदय तक जाते हैं । एक नमूना और –

‘जीवन को उन्मुक्त बना दे
एक गीत हूँ मैं ।
जैसे –
छा गया
अवसादों में घिरे हुये
जो आँसू पीते हैं
अन्नस्तल में दर्द समेटे
मर-मर जीते हैं
जीवन के पृष्ठों पर अंकित एक गीत हूँ मैं।’

जीवन का मीत होना गोया जीवन के तमाम यथार्थों का साक्षी होना है ! जीवनगत अनुशासनों के अधीन होना है । आचारों-विचारों के समतुल्य होना है। आज की दुनिया में चाहे वह जितना भी अलग क्यों न हो, अपने आप में एक आश्चर्य तो जरूर बोता है ! मनुष्य का मन-एक दुखता हुआ मन के भीतर सँजोये गये सपने जब टूट कर पत्थर के मानिंद कठोर हो जाते हैं या मोम की भाँति गल-पिघल कर द्रवणशील हो जाते हैं, तब वेसे पुरूष-मन के लिए कुछ भी असंभव नहीं रहता, ‘मर-मर कर भी वह जी ही लेता है । यह भी जीवन की ही ‘पॉजीहीविटी’ है। किताब के स्पष्ट बोल हैं –

‘संघर्षों से कभी न हारे
वही गीत हूँ मैं !’

किताब में ‘गाँव’ विषयक एक और कविता है- अतुकान्तता की टेक पर । गाँव हमेशा से आकर्षण का केन्द्र रहा है - हर किसी के लिए । गाँव की हवा, गाँव की गोधूलि, गाँव के हरिआते दृश्य, सादगी और सरलता का छलहीन जीवन, खिलती हिना और खुशबू फैलाती शेफालिका, महुए की मादक महक, सरसों के पील-पीले फूलों पर झड़ती ओस की झीसियाँ, सावन के झूले और हाथों में खिलते मेंहदी के फूल-किसे आकृष्ट नहीं करते ? अपने गाँव में बीते बचपन के दिन और दिनों के दामन पर गुज़रते दृश्यों की यादों में किताब की ये पंक्तियाँ अपने गाँवों को यूँ व्यक्त करती हैं –

‘आओ मेरे दोस्त
उस गाँव में ले चलूँ
जहाँ बीता था मेरा बचपन !
अब वहाँ न
कोई झाड़ है
न चबूतरा
न ही कोई झोंपड़ी
वहाँ तो बस भीमकाय चमनियाँ
अपना धुआँ उगल रही हैं ।’

परिवर्तन के नाम पर कुरूपताओं का प्रतिष्ठान ग्रामीण-संस्कृति को पंक्वर करती जा रही हैं । ये दृश्य अब रास नहीं आते उन आँखो को जिनमें गाँव के गँवई दृश्य बचपन के दिनों जैसे बसे हुये हैं । ऐसे दृश्य जो आज भी बासी नहीं हुये हैं ; फिर क्यों न जी उस गाँव के लिए तरसे ?

इससे अलग हट कर एक और गीत पढ़ते चलें किताब से ! वह गीत है ‘तीरथ-धाम’ । यह गीत तीरथधाम की उड़ती सुगन्धों को एहसास के सहारे पिरो कर, हमारी अन्तश्चेतना को हिलकोरता है!
अँगड़ाई लेती जब
आती है शाम
लगता है तब मेरा
घर तीरथ-धाम
……………….
गोबर उठाता हूँ
हाथों से जब मैं
पावन तब पाता हूँ
अपने को तब मैं
अपने को तब मैं
पाता हूँ अपने में तब मैं ब्रजधाम ।’

कर्तव्य-बोध के साथ जब आत्म-तुष्टि का बोध मिलने लगता है तब आत्मानंद से बढ़ कर किसी स्वर्गानंद की कल्पना बेमानी हो जाती है । स्वयं और गौ-सेवा के बीच जिस आत्मीयता का सृजन हुआ है, वही भाग प्रेम-पूर्ण समर्पण का भाव बन जाता है । जैसे प्रेमपूर्ण भाव समर्पण भाव मुखर है वहाँ तन और मन का एकीकरण हो जाता है जिसका कोई वर्गीकरण कभी नहीं, कहीं नहीं हो सकता । यही अविछिन्नता ‘रसो वै सः’ के काव्य-लोक की पीठिका बन कर काव्यानंद की पूर्णता प्राप्त करती है ।

विषय-वैविध्य इस किताब का एक और खास गुण है, जो अतुकान्त में होकर एकान्तता का स्वाद भरता है और यह भी परिलक्षित करता है कि रचनाकार किसी खास विषय और दृश्य के अधीन नहीं बल्कि वह उन तमाम दृश्यों-उपदृश्यों के प्रति ईमानदार है जो उसके हृदय-प्रदेश को छूकर झनझना जाते हैं । किसी विशेष विषय की सरहद में समाकर रह जाना रचनाकार की असमर्थता को रेखांकित करता है ।

इस सच्चाई के बावजूद इस किताब की अपनी एक और सच्चाई है जो कर्म-संकुलता की उपज नहीं कही जा सकती बल्कि भाव-मंजुलता की मार्मिक अभिव्यक्ति मानी जा सकती है और इसे ही इस किताब का मूल स्वर माना जाना चाहिए । सच पूछिये तो सम्पूर्ण विश्व-साहित्य का मूल स्वर है भी यही ।

मनुष्य का मन जिन रागात्मक भावनाओं से जुड़ा हुआ है, वही भाव साहित्य-सृजन का मूल भाव है । ‘मोंदटबलेक’ वाली कविता में जब शैली की कल्पना उद्भासित हुई, तब कवि पूछा बैठा-मैं स्वप्न देख रहा हूँ क्या ? कीट्स ने अपनी ‘हाइर्पोरयन’ काव्य लिख कर ऐसा ही महसूस किया और कहा-यह संयोग से लिखा गया, जादूवश निकल पड़ा, मैंने उसकी रचना नहीं की है ! और अपने भारतीय वांङ्ग्मय में बाल्मीकि तब स्वयं चमत्कृत हो उठे जब शोक का यह श्लोक फूट पड़ा –

‘तस्यैवँ ब्रवन्तश्चिंचा बभूण हृदि वीक्षतः
शोकार्त्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृत मया ?

मगर, तथ्यत : संबुद्धि (इनटुइशन) अदृश्य-शक्ति का संकेत न होकर अत्यंत क्रेन्द्रित चिंतन का परिणाम हो जाता है और यही ठीक है। चिंतन की यही प्रक्रिया लगभग योग की प्रक्रिया के करीब है । सभी दिशाओं से हटकर चिंतन केंद्रित जाती है और वह तब ऐसे तथ्यों का आभास पा जाती है जो तर्ककी पहुँच के परे हो जाता, तब उसकी शक्ति बढ़ जाती है और वह ऐसे तथ्यों का आभास पा जाती है जो तर्क की पहुँच के परे है। महर्षि अरविन्द ने जिस ‘ओवर माइंड’ की बात कही है, वह यही है और इसी मानसिक-अन्तरिक्ष की उपज है-‘सावित्री-महाकाव्य’ । इसके पीछे जो ठोस और मजबूत पूरक तत्व है, उसके बिना चिन्तन में एकाग्रता नहीं आती । चिन्तन में वह चित्त है, उसके बिना चिन्तन में एकाग्रता नहीं आती । चिन्तन में वह चित्त तब आता है जब उस विषय से रसात्मक लगाव हो ! रागात्मिका-शक्ति ही चिन्तन के केन्द्रित करती है और तभी ‘सावित्री’ जैसा महाकाव्य की कल्पना की जाती है। ध्यान से उत्तरी ध्रुव पर टिके बिना कोई सच्ची कविता नहीं फूट सकती ! ध्यान का उत्तरी ध्रुव उसे ही माना जाना जाहिए जहाँ सभी विचार और भाव उठते हैं ! मगर प्रेरक तत्व के बिना कुछ भी संभव नहीं, - न ध्यान, न विचार, न भाव !

इस किताब के पीछे भी प्रेरणा का एक अजस्त्र स्त्रोत है और वह स्त्रोत है रचनाकार के भीतर बढ़ती हुई एक निःस्वन नदी – प्यार की नदी! प्यार किसी प्रेयसी का हो अथवा पत्नी का ! मगर किताब कहती है कि रचनाकार ने पत्नी-प्यार के अभाव में ही अपनी रचना का संसार बसाया है! जो भी हो, जब प्यार प्रेरणा बन जाता है तब पत्थर भी गाने-गुनगुनाने लगते हैं। उनमें भी वह जीवन्तता आ जाती है जो पथरीले मनुष्य में नहीं आ पाती । प्यार जहाँ पारदर्शी हो जाता है वहीं वैसे गीतों का जन्म होता है जिन्हें पाठक पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपते जाते हैं । गालिब वैसे गीतों की तरफ बेबाक-इशारा करते हैं-

‘गालिब मेरे कलाम में क्यों कर मज़ा न हो
पीता हूँ धो के खुशबे-शीरीं-सुखन के पाँव ।’

और इसलिए तो.......

‘तुम हृदय की वेदना हो
और मैं अनुगूँज उसकी ।’

फिर-

‘एक दिन हमदर्द के लगता है यह सुना शहर है ।’

फिर –

‘इस निविड़, एकान्त तम में
दीप बन तुम जगमगाओ ।’
या-

‘चल दिये तुम!’

ये तमाम रचनाएँ उपांकित कथन के ही पक्ष में है । पाठक-मन को छूती और समझाती है कि – ‘Paind of love are sweeter far Than all other pieasures are’

‘वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान...... ।’

और यही इस किताब की सच्चाई है। इस सच्चाई को, सच्चे हृदय से सच की तरह कह देना, इस किताब की अनुभुतियों की बहुत बड़ी सच्चाई है। सच्चाई को कविता के लिए, किताब को बाद में, कवि को पहले नमन किया जाना चाहिए क्योंकि कही हुई बातों को फिर से कहने में भला क्या संकोच-

Truth is poetry.’

और यह निश्चित रूप से जल्दबादी की उपज नहीं बल्कि अनुभूतियों की स्वानुभूति है क्योंकि यह किताब उसी अन्तस्तल पर एक हमला है ताकि हम इस का सरगम भूल कर स्वयं निरंजन का अंजन बन जायें ।

प्यारे गीतकार मेरे अनुज सरीखे डॉ. श्याम निर्मम मेरे अत्यंत अभिन्न आत्मीय और हृदय के समीप हैं । उन्होंने मेरे अनुग्रह से ‘एक गीत तुम्हारे नाम’ को पुस्तकाकारूप दिलाया । किन शब्दों में उन्हें प्रेम अपित करूँ ? वे मेरे अपने हैं । ‘अनुभव प्रकाशन’ के मालिक प्रिय अनुभव जी को भी आशीष ! भाई नथमल ‘झवर’ के इन गीतों और कविताओं को पढ़कर निश्चित ही आप अपने मन में अपनेपन का अहसास पायेंगे ।


राजमणि राय ‘मणि’

संपर्क :
ग्राम-पोस्ट- धमौनपट्टी
व्हाया- महनार
जिला- वैशाली
विहार, 844506

अपनी बात


बीते हुये पलों की
उन यादों को
शब्दों से अभिमंत्रित कर
अपने सुधिजनों को
करता हूँ समर्पित ।



नहीं जानता
मेरा यह समर्पण
किसी की स्वीकार होगा
या नहीं
कोई लगा लेगा
छाती से
या छोड़ देगा
धरती पर
बेबस पड़े रहने के लिये
नहीं जानता ।


नहीं जानता
मेरी साधना
किसी के अन्तर्मन को
छू पायेगी
किसी के बुझे हुए
दिल को सहला पायेगी
नहीं जानता ।

मैं नहीं जानता कुछ भी
मेरी साधना अनुत्तरित है
समर्मण के बाद
शेष के बाद
शेष है तो केवल यादें !
उनकी यादें !
000000

आभार


व्यक्ति अपने जीवन की प्रथम श्वांस से लेकर अंतिम साँस तक न जाने कितने लोगों का स्नेह लेकर जीता हैं, प्रेम लेकर जीता है और इस सहयोग से उऋण होना शायद उसके वश की बात नहीं है।
वैसे कोई भी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो अपने आप में पूर्ण नहीं होता । उसे हर कदम पर, पग-पग पर अन्यान्यों का सहारा लेना होता है ।
बस यही बात इस कृति के लिये भी है, जो आपके हाथों में है। इस हेतु मुझे इतना सहयोग मिला है, इतना स्नेह मिला है, इतना प्रेम मिला है, जिसके बिना इसका रूप में आ पाना संभव नहीं था । और मैं उन सबका आभारी हूँ ।
सर्वप्रथम तो मैं उन मूर्धन्य साहित्यकारों का आभार मानता हूँ जिनका सदैव ही मुझ पर वरदूहस्त रहा है। वे हैं आदरणीय श्री लक्ष्मीनारायण जी शर्मा ‘साधक’, डॉ. ध्रुवकुमार जी वर्मा, श्री फूलचन्द जी चोपड़ा एवं श्री किरण मिश्र ।

इस कृति को मूर्तरुप देने में जिन-जिन विशिष्ट हस्ताक्षरों का योगदान रहा और जिनके सद्प्रयासों से यह कृति प्रकाश में आ पायी है, मैं उनका आजीवन आभारी रहूँगा । आप हैं-श्री राजमणि राय “मणि”, डॉ. श्याम निर्मम तथा श्री जी.पी. तिवारी, जिनके मार्गदर्शन एवं अथक प्रयासों से ही इस कृति ने एक ‘नये सृजन’ का रूप लिया ।

इस अर्थप्रधान युग में जहाँ प्रत्येक वस्तु को, प्रत्येक व्यक्ति को अर्थ से ही तौला जाता है वहाँ अर्थ को महत्व न देने हुए ‘अनुभव प्रकाशन’ ने इसे संग्रह का रूप प्रदान किया । एक रनाकार के लिए इससे बढ़कर सहयोग भला और क्या हो सकता है ?
आभार है कृति के आवरण साज सज्जाकार श्री सुरंन्द्र ‘सुमन’ को तथा ‘अनुभव प्रकाशन’ के स्वामी श्री अनुभव और उनके तमाम सहयोगियों को, जिन्होंने पूरे मनोयोग से पूरी आत्मीयता से, इसे संग्रह का रुप देने में अपना योगदान दिया है ।
नवभारत, दैनिक भास्कर, देश बंधु, समवेत शिखर, माहेश्वरी, नोंकझोंक, स्वर्णिम प्रकाश आदि पत्र-पत्रिकाओं का भी आभार मानता हूँ, जिन्होंने अपने विशेषांकों और साप्ताहिकी में रचनाओं को स्थान देकर मेरा मनोबल बढ़ाया है।
विशेष आभारी हूँ मैं उन सुधिजनों का भी, उन पाठकों का भी जिनके हाथ नें यह कृति है और इस हेतु वे अपना अमुल्य समय प्रदान कर रहें हैं।
मैं उन तमाम सहयोग प्रदान करने वाले सज्जनों का ऋणि हूँ।

संभव नहीं चुका पाना इस ऋण को,
ऋण लेकर जाने से मैं डरता हूँ।
कुछ तो हल्का हो बोझा उस मन का,
इसीलिए आभार प्रकट करता हूँ ।


--नथमल झँवर
सिमगा, रायपुर
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01. तुम्हारी याद



न जाने कितने
जन्म-जन्मांतरों से
जुड़ी है तुम्हारी यादें ।

जब भी तुम्हारी याद
किसी खिलखिलाते हुए
बच्चे की तरह
आती है मेरे ज़ेहन पर
बाग-बाग हो जाता हूँ मैं
गुदगुदी-सी भर जाती है
पोर-पोर में
एक अप्रतिम आनंद की
अनुभूति होती है तब
किलकारी मारने को
करता है मन
उस बच्चे की तरह

तुम्हारी याद
किसी गुलाब के फूल की तरह
खुशबू बिखेरता हुआ
छा जाता है
मेरे रोम-रोम में
तब महक उठता है
मेरा भी सारा
तन-मन
उस गुलाब की तरह ।

तुम्हारी याद
बेसुध कर देती है –
मुझे
खो जाता हूँ
सपनों के संसार में
डूब जाता हूँ
उस पल में
जिस पल
हुआ था –
हम दोनों का
प्रथम आलिंगन
00000

02.मदहोश चुम्बन


फिर उगी होंगी
पीपल की
मासूम कोपलें ।

पीपल के तने पर
जरुर होंगे
हम दोनों की
ऊँगलियों के निशान
जिन निशानों के बीच
छुपी हुई हैं
हमारी यादें
प्रथम मिलन की ।

वह पक्षी
जरूर बैठा होगा
उसी शाख़ पर
और
प्रतीक्षा कर रहा होगा
हम दोनों के
पुनः आगमन की ।

उस उन्मुक्त
हँसी को
सुनने के लिये
ज़रूर बेताब होगा
वह पीपल का पेड़
आज भी
तुम्हारी यादें की तरह

वह मदभरी हवा
जरूर दे रही होगी
एक मदहोश चुम्बन
उन पत्तों के
अधरों पर
हम दोनों की तरह ।
00000

03.एक गीत तुम्हारे नाम



कभी-कभी सोचता हूँ
लिख दूँ एक गीत
तुम्हारे नाम का
छा जाये
वह गीत
सारी धरती
सारे आकाश
सारे लोक में ।
प्रतिध्वनित हो उठे
तुम्हारा नाम
दसों दिशाओं में ।
मंद-मंद
बहती बयार
तुम्हारे नाम का
गुण गाती जाये
नदी की बहती
कल-कल धारा
तुम्हारा ही गीत
सुनाती जाये
प्रतिध्वनित हो उठे
कण-कण में
वही गीत
इन वादियों में भी
गूँज उठे
मधुर संगीत
सूरज भी
तुम्हारे गीत को
अपनी किरणों से
बिखेर दे चहूँओर
बहती चली जाये
झरनों से
गीत की पंक्तियाँ
शेष बच जाएँ
तो मेरे पास
उस गीत की यादें
सिर्फ़ यादें ।
00000

04.एक शून्य


मेरी दर्द भरी
आवाज़
सुन सकोगी तुम
तो सुन लो ।

याद है मुझ
आज भी वह मोड़
जहाँ से
अलग हुए थे
हम-तुम ।
शहनाइयों की
ध्वनि के बीच
तुम्हारी डोली
सजाई जा रही थी
मेरे अन्त का प्यार
धू-धू कर जल रहा था
उस चकाचौंथ
रोशनी में भी
जैसे-
छा गया था अँधेरा
मेरे मन का अँधेरा
देख सकोगी तुम
तो देख लो ।

एक अनबुझी प्यास
तुम्हारे बिछुड़ने का –
एहसास
अपलक नेत्रों से
निहारता रहा
उस दिशा की ओर
जिस दिशा में
तुम्हारी डोली
जा रही थी
मेरे सपनों का संसार
उजड़ चुका था जैसे
फट रहा था मेरा कलेजा
निकल रहा था
एक आर्तनाद !
उस आर्तनाद को
सुन सकोगी तुम
तो सुन-लो ।

जब तुम ही चली गईँ
तो मेरे जीवन में
अब रहा ही क्या
मंदिर से मूर्ति
चली गई हो जैसे
काया से आत्मा
निकल गई हो जैसे
रहा गया अब
शून्य
केवल शून्य इस शून्य का एहसास
कर सकोगी तुम
तो कर लो ।
00000

05.पदचाप


एक दिन
आईं थीं तुम
दुल्हन बनकर
मेरे द्वार पर
सजकर
सँवरकर
आज तुम नहीं हो
तुम्हारी काया भी नहीं है
फिर भी
तुम्हारी
पदचाप
सुनाई दे रही है
आज भी
मेरे कानों को ।
00000

06.वचन



तुमने मुझे
बचन दिया था
जीवन भर
साथ निभाने का
सिंदूर भी भरा था
माँग में
मेरे नाम का
लेकिन आज
मुझे छोड़कर
तुम चली गई
सद-सदा के लिये
काश !
मेरे भी प्राण
उसी समय
उड़ जाते
तो, तुम्हारा बचन भी
पूरा हो जाता ।
00000

07. तुम्हारी याद



याद है मुझे
वे बीते हुये दिन
जब अमराइयों में
पनघट पर
छुप-छुप कर मुझसे
मिला करती थीं
घंटों खो जाते थे
स्वप्न की दुनिया में
जग से –
बेखबर ।
आज, तुम नहीं हो
तुमहारी याद
तरोताज़ा है
आज भी मेरे ज़ेहन पर ।

00000

08.अकेला



मैंने तुम्हें
बनाया था
अपना जीवन-साथी
सात फेरे करके
अग्नि को साक्षी देकर
वैदिक मंत्रोच्चार के बीच
हुआ था हमारा
प्रणय बंधन
क्या इसीदिन के लिये
कि
इस अगम संसार से
तुम विदा हो जाओ
.यूँ ही, मुझे-
अकेला छोड़कर ।
00000

09. मन


सोच रहा
मेरा यह मन ।
क्षितिज के उस पार
कहीं
होता बसेरा
आ जाता जीवन में
स्वर्णित सबेरा
चाँद को ले आता मैं
अपने आँगन में
खुशियों को पा लेता मैं
कुछ ही क्षण में
विहँस जाये
सारा उपवन ।

मिल जाये
अनायास
मुझको राहों में
जी भर कर
भर लूँगा
अपनी बाहों में
अधरों से अधरों की
प्यास बुझा लूँगा
बातों ही बातों में
दर्द सुना दूँगा
रहूँ मैं निहारता
हर क्षण

00000

10.काँटा बो गया


तुम गईं
जैसे जीवन से-
बहार चली गई
मन से-
खुशियाँ चली गईं,
तन से-
आत्मा चली गई,
पेड़ों से पत्तियाँ
झर गईं हों जैसे,
बरगद की जड़
मर गई हो जैसे,
लगता है कोई सागर
सूख गया हो,
नदी बहने से
रुक गई हो,
तुम गईं
जैसे सारा जीवन
अंधकारमय हो गया
गुलाब की जगह
कोई
काँटा बो गया ।

00000

11. जरूरी है



जरूरी है
हमारी पीड़ा को
अन्तरात्मा से
उठती वेदना को
कोई सहला जाए
प्यार की मीठी
दो बात कर ले
अनवरत-
बहते अश्रुकण
पोंछ ले
जरुरी है।

जरूरी है
कोई दे जाए
हौसला
टूटने से कोई
बचा ले
उजड़ने से पहले
बसा ले
गिरने से पहले
उठा ले
कोई बन जाए
हमारे लाठी का
सहारा
आँखों की रोशनी
जरूरी है ।

जरुरी है
कोई दे जाए हमें
स्नेह के दो फूल
प्यार के दो शब्द
आशीर्वाद के
कुछ वचन
भर ले अपनी बाहों में
लगा ले कोई
छाती से
चूम लूँ उसके चरण
जरूरी है ।
00000

12. बढ़ो



बढ़ो
तुम्हारा मूर्य
बादलों से ढँक जाए
जीवनाकाश
उदास दिखाई दे
तब भी
धैर्य धरो
साहसी बीर
अंधकार चीरते
व्यवधानों को ललकारते ।
पंथान्वेषी साधक !
बढ़ो, आगे बढ़े
तुम्हारी विजय अवश्यंभावी है।
करो
साहस तो करो
पत्थर भी पिघल जाएगा
माऊन्ट एवरेस्ट की ऊँचाई भी
कोई ऊँचाई –
नहीं रह जायेगी ।
छुओ
उस मर्म को छुओ
जिसने तुम्हें निराश किया है
उसमें से निकलेगी एक प्रतिध्वनि !
रे मानव !
जो अंधकार से डर गया
समझ लो मर गया
बैठो
उस स्थान पर बैठो
जहाँ बुद्ध को मिला था
ज्ञान
बन सकते हो
तुम हो बुद्ध
महावीर
लेकिन
व्यर्थ गँवाये जा रहे हो
जीवन
भटक रहे हो शून्य में
गला रहे हो अपना
तन
सोचो
कुछ तो सोचो
क्या निराश होने का अर्थ
पलायन नहीं
कायरता नहीं
विवेकहीनता नहीं
निराशा
सिर्फ अकर्मण्यों के
शब्दकोश में होती है
उत्तरदायित्व के निर्वहन
न कर सकने की
क्षमता का ही नाम है
निराशा
इस निराशा को
मत आने दो
अपने जीवन में
करो
अपने उत्तरदायित्व का
निर्वहन तो करो ।

00000

13.लिखो



लिखो
जो लिखना चाहते हो
लिख डालो
क्योंकि हो सकता है
फिर लिखने का
समय ही निकल जाये ।

लिखो
उस भावना के बारे में
जो मर चुकी है
उन पत्तों के बारे में
जो झर चुके हैं
उन आत्माओं के बारे में
जो डर चुकी हैं
लिखो, जरुर लिखो
उनके हौसले
बुलंद करने के लिये –
लिखो
क्योंकि हो सकता है
तुम्हारे लिखने से
उसको संबल मिल जाये ।

लिखो
उन इन्सानों के बारे में
जो सो रहे हैं
उस पाप के बारे में
जिसे बो रहे हैं
उस पुण्य के बारे में
जिसे खो रहे हैं
लिखो
जरूर लिखो
क्योंकि हो सकता है
तुम्हारे लिखने से
कुछ प्रेरणा मिल जाये ।
00000

14. सोचो


सोचो
कुछ तो सोचो
पर कब सोचोगे
किस आयु किस काल में ।

ढलता जा रहा सूरज
ढलती जा रही शाम
ढलता जा रहा यौवन
ढलती जा रही तमाम
जागो
कुछ तो जागो
पर कब जागोगे
किस आयु किस काल में ।

चुकती जा रही साँसें
चुकता जा रहा
समय
चुकती जा रही
लय
कर लो
कुछ कर लो
पर कब करोगे
किस आयु, किस हाल में ।
पड़ती जा रहीं
झुर्रियाँ
शिथिल हो रहा शरीर
जवाब दे रहीं
आँखें
नाकाम हुये सब तीर
भज लो
कुछ भज लो
पर कब भजोगे
पड़े हो जंजाल में ।
00000

15.माँ होने का एहसास


बेटी !
तुम्हें विदा करते समय
जब अपने
सीने से लगाया
तो मुझे लगा
जैसे मैं अपने ही
कलेजे को
सीने से लगा रहा हूँ
मेरा कलेजा
शायद मुझमें नहीं
तुम्हरी देह में है
बेटी !
जिस दिन
मैंने तुम्हें
गोदी में खिलाया था
पालने में झुलाया था
उस दिन
तुम्हारे पिता होने का
एहसास था मुझे
लेकिन आज
जब मैंने
तुम्हारे सिर पर हाथ फेरा-
तुम्हारे माथे को
चूम लेना चाहा
तो मुझे
तुम्हारा पिता नहीं
माँ होने का
एहसास हो रहा है।

00000

16.वह बुढ़िया



बह बुढ़िया
आज भी आई है
मेरे द्वार
खाँसते हुए
खखारते हुए
लाठी टेकते हुए ।

मैले-कुचैले वस्त्र
धँसी हुई आँखें
पिचके हुये गाल
लट पड़े बाल
दे-दे भगवान के नाम पर
कहती हुई
आज भी आई है
मेरे द्वार ।

कभी-कभी सोचता हूँ
इसका भी कभी
रहा होगा बचपन
बड़े प्यार से
पाला होगा
इसके माता-पिता ने
हर ज़िद पूरी की होगी
गोदी में खिलाया होगा
पालने में झुलाया होगा
अच्छी से अच्छी लोरी –
सुनाई होगी इसकी माँ ने
बही आज
भटक रही है
दर-दर
द्वार-द्वार
ठोकरें खाते हुए
भीख माँगते हुए
सिहर उठा मेरा मन
काँप उठा संसार ।

कभी-कभी सोचता हूँ
यह भी कभी
जबान रही होगी
खूबसूरत रहा होगा
इसका भी चेहरा
सपने सँजोये होंगे
इसने भी सुनहरे
प्यार के संसार में
यह भी कभी –
डूबी-उतराई होगी
मिला होगा इसे भी
कोई जीवन-साथी
अच्छा-सा
संसार को खुशनुमा
देखा होगा
इसने भी कभी
वही संसार
दे रहा है आज पीड़ा
अपमान
तिरस्कार ।

कभी-कभी सोचता हूँ
क्या जीवन इसी का नाम है ?
हँस लो, खेलो
गाओ, मुस्कराओ
और
उसी बुढ़िया की भाँति
बन जाओ
बेदना हो रही है
अपार ।

00000

17.कर्त्तव्यबोध


ओ माँ !
याद है मुझे
आज भी वह दिन
जब तुम मुझे
हाथ पकड़कर
ले जाती थीं घुमाने
नींद नहीं आने पर
देती थीं थपकियाँ
सुनाती थीं
राजा और रानी की
कहानियाँ

ओ माँ !
याद है मुझे
आज भी वह बचपन
जब तुम मुझे
बिठा लेती थीं
अपने कंधों पर
खेलती थीं
मेरे साथ
आँख-मिचौनी
हर पल
हर क्षण
केवल मेरा ही
ध्यान रखती थीं
अब, जब-
मुझे ध्यान रखने का
वक़्त आया
तब तुम
विदा हो गई
इस संसार से
हमेशा-हमेशा के लिये

ओ माँ !
कैसे उऋण कर पाऊँगा
अपने आपको
कैसे समझा पाऊँगा
अपनी आत्मा को
कुछ तो बता दो
ओ माँ !
00000

18. यात्रा


कृषकाय होने लगी है
काया
शिथिल होने लगे हैं
सब अंग-प्रत्यंग
फिर भी
बढ़ते रहने की
जिजिविषा के कारण
मैं चलता जा रहा हूँ
पथ पर
अनवरत
लगातार
बिना यह स्वीकारे कि
साँसे जब
अवरुद्ध होने लगे
आँखों के आगे
छाने लगे अँधेरा
तब तो मुझे
समझ लेना चाहिये
कि मेरी यात्रा
अब पूर्ण हो चुकी है ।

00000

19. प्रतीक्षा



वियोग
दे जाता है
पीड़ा
दर्द
संताप
तड़प उठता है
मन
विदीर्ण हो जाता है
हृदय
लेकिन
वह दिन जरूर आयेगा
जब होगा
पुनर्मिलन
संयोग
बस
इसी बात की
प्रतीक्षा करते रहता
मेरे मन !

00000

20.सामंजस्य



टिमटिमाते
दीपक को देख
मुझे ऐसा लग रहा था
कि कितना सांमजस्य है
मेरे जीवन और
इस दीपक के जीवन में
जैसे-
तेल के चुकते ही
यह समा जायेगा
एक गहन अंधकार में
बस इसी भाँति
मैं भी तो समा जाऊँगा
इस विशालकाय
धरती में
साँसों के चुकते ही

एक दिन ।

00000

21. ओ माटी



ओ माटी ! बता दो ना
मैंने अपनी प्रियतमा को
सुलाया था
तुम्हारी गोदी में
बराबर ढाँककर
आया था
तुम्हारा आँचल
ताकि कोई दूसरा
देख न ले
तुम्हारे आँचल की
छत्रछाया में
आज भी सो रही होगी –
वह
निहारना चाहता हूँ
उसे
एक बार गले से लगाना चाहता हूँ
फिर से
बाँथ लेना चाहता हूँ
अपने बाहुपाश में
लेकिन तुम्हारी गोद
कहीँ भी
दिखाई नहीं दे रही है
कहाँ ढूढूँ
इतनी बड़ी धरती के बीच
ओ माटी
जवाब दो ना
ओ माटी
मैं जानता हूँ
तुम्हारा स्नेह आज भी
उसे मिल रहा होगा
अपनी गोदी से
उतारा नहीं होगा
तुमने
आखिर माँ हो ना
फिर भी जाने क्यों
देख लेने को
करता है मन
उसकी आवाज़ सुनने को
तरस रहे हैं
कान
उससे बात करने को
तरस रहे हैं
ओठ

ओ माटी
मेरा संदेशा
उस तक पहुँचोओगी
कृतार्थ हो जाऊँगा मैं
क्या मिल पाऊँगा
उससे दोबारा
ओ माटी
बता दो ना !
00000

22. दीप जल जाते



बस
तुम्हारी याद के
कुछ
दीप जल जाते ।

रोशनी में
नहाकर
कुछ अर्चना
कर लूँ
पुण्य सुधिया की
तनिक मैं
अंजुरी भर लूँ

आज से
बस तुम मेरे
आराध्य बन जाते ।

सजाई
मैंने सदा ही
स्नेह की
थाली
तुम्हीं से है
आज मेरी
पूर्ण दीवाली

आज बस
तुम टिमटिमाते
दीप बन जाते ।
आज मेरे सब्र का
सब
बाँध है टूटा
और बस
तेरे बिना
यह जगत है झूठा

आज सूरज से
जरा
पहले निकल आते।
00000

23.तेरा यह गाँव


अलसायी
आँखें हैं
कम्पित हैं पाँव
सूना अब
लगता है
तेरा यह गाँव ।

बागों
बागीचों में
छुप-छुप कर मिलना
पायल-सी
छम-छम कर
तेरा वह चलना
आ जाती
रोज-रोज
करके बहाने
सूना जब
पनघट हो
आती नहाने
याद मुझे आ रही
पीपल की छाँव ।

एक दिन
सज गई
तेरी जब डोली
जल गई
मेरी सब
अरमां की होली

याद मुझे
आ रहा
तेरा वह मुखड़ा
आज किसे-किसे कहूँ
अपना यह दुखड़ा
मेरा अब
रहा नहीं
दुनियाँ में ठाँव ।

00000

24.एक दीप हूँ मैं



जीवन-पथ आलोकित कर दे
एक दीप हूँ मैं ।

दूर सुदूर न जाने कोई
मुझ पुकार रहा
एक किरण की आशा लेकर
मुझे निहार रहा
सौ योजन की दूरी मुझको
तय कर जानी है
अंधकार पीती गलियों की
प्यास बुझानी है।

अन्तर्मन से मुझे पुकारो
तो समीप हूँ मैं ।

आँधी तूफ़ानों में मुझको
हर पल जलना है
निपट अँधेरी रातों में भी
मुझे निकलना है
सागर भी हूँ, पर्वत भी हूँ
और द्वीप हूँ मैं !

आँसू भी मोती बन जाये
वही सीप हूँ मैं ।

00000

25. एक गीत हूँ मैं



जीवन को उन्मुक्त बना दे
एक गीत हूँ मैं ।

अवसादों से घिरे हुये
जो आँसू पीते हैं
अन्तस्तल में दर्द समेटे
मर-मर जीते हैं ।

जीवन के पृष्टों पर अंकित
एक मीत हूँ मैं ।

मुरझाये पुष्पों को मैंने
जीवनदान दिया
पतझर के मौसम ने भी
मेरा रसपान किया ।

संघर्षों से कभी न हारे
वही जीत हूँ मैं ।

00000

26. सार्थक



मैं हमेशा
सार्थक बनकर
जीना चाहता हूँ
उन एक्सपाइरी डेट की
दवाइयों की तरह नहीं
जिसे लोग कहें
बेकार है
उस बेकार कहलाने से
ज्यादा अच्छा है
उस अनंत मौन में
समा जाना
जिसे लोग
मृत्यु कहते हैं ।
00000

27. दहेज



यह समाचार
पढ़कर
काँप उठता है मन
सिहर उठता है तन
आज फिर चढ़ा दी गई
एक बहू
दहेज की वेदी पर ।

जिन निर्मम हाथों ने
उस मासूम कली को
खिलने से पहले
तोड़ दिया
सुवासित होने से
पहले
मुरझा दिया
जिसने उगते हुए
सूरज को कभी
जी भर देखा नहीं
चाँद की शीतलता का
एहसास भी
नहीं कर पाई
उस मासूम
कोमल, सुकोमल
देह को
झोंक दिया
कधधकती ज्वाला में
दहेज,
सिर्फ़ दहेज की ख़ातिर ।

जिन पाशविक
हाथों ने
ऐसा कुकृत्य किया
क्या उन्हें कभी
इस बात का
एहसास हुआ होगा
कि उन्होंने
एक माँ से
उसकी बिटिया छीन ली
एक भाई से
उसकी बहन
एक पिता से
उसकी लाडली
एक मासूम से
उसका संसार ।

यदि हुआ है
तब भी
नहीं हुआ है
तब भी
इतिहास
कभी माफ़ नहीं करेगा
नहीं करेगा माफ़

00000

28.परिवर्तन



आओ मेरे दोस्त
उस गाँव में ले चलूँ
जहाँ बीता था मेरा बचपन ।

जिन झाड़ों के नीचे
जिन झोपड़ियों के पीछे
जिन चबूतरों की ओट में
जिन बच्चों को समेटकर
खेलते थे गुल्ली डंडा
रेस टीप
आँख-मिचौनी
अब वहाँ
न कोई झाड़ है
न चबूतरा
न ही कोई झोपड़ी
न ही अब वहाँ
कोई बच्चा मचल रहा है
वहाँ तो बस
भीमकाय चिमनियाँ
अपना धुआँ उगल रही हैं ।
जिन अमराइयों से आती थी
मंद-मंद खुशबू
चलती थी ठंडी बयार
गोधूली में लौटती थीं
गायें
बंशी की तान सुनाते
ग्वाल बाल
अब वहाँ न गाय हैं
न बछड़े
न ही कोई वंशी की
तान ही सुनाई देती है
सुनाई देती है तो बस
बड़ी-बड़ी मशीनों की
आवाज़ें
शोर मचाती
ट्रकों की रफ़्तार
आओ मेरे दोस्त
उस गाँव में ले चलूँ
जहाँ बीता था मेरा बचपन

00000

29.तीरथधाम



अँगड़ाई लेती जब
आती है शाम
लगता है तब मेरा
घर तीरथधाम ।

गायों का संध्या को
घर लौट आना
कोठे में आकर के
उनका रम्भाना
चारा जब देकर के
करता विश्राम
लगता है तब मेरा
घर तीरथधाम ।

उनके मुखमडल पर
हाथ फेर लेता
उनको जब हाथों से
पानी मैं देता
उनको जब सहलाता
रोज सुबह-शाम
लगता है तब मेरा
घर तीरथधाम।

बछड़ों की आती जब
टोली की टोली
बन जाता मैं भी तब
उनका हमजोली
उछलते हुये क्षण
वे करते कुहराम
लगता है तब मेरा
घर तीरथधाम ।

गोबर उठाता हूँ
हाथों से जब मैं
पावन तब पाता हूँ
अपने को तब मैं
पाता हूँ अपने में
तब मैं ब्रज धाम
लगता है घर मेरा
तब तीरथधाम ।

दुध मुझे लगता है
अमृत हो जैसे
गोमूत्र की कहें क्या
औषधि हो ऐसे
इस सेवा को समझूँ
सेवा अविराम
बन जाये तब मेरा
घर तीरथधाम ।
00000

30.आत्म-निवेदन


मैं भी एक दिन
चला जाऊँगा दुनिया से
भूल जायेंगे लोग ।

आज तब मैंने
जो जीवन जिया
जो कुछ भी किया
मेरे उद्देश्य की
पूर्ति नहीं कर सका
मेरा आत्मा
इसे भी सह गई
मेरी झोली
खाली की खाली
रह गई ।
खाली झोली देखकर
मैंने कभी शिकायत नहीं की
अनैतिक भरने का
प्रयास भी नहीं किया
अट्टालिकाओं को देखकर
दुखी नहीं किया मन
ईर्ष्या से
जलाया नहीं अपना तन
लेकिन इस बात का
एहसास तो था
कि मैं जो बनना चाहता था
बन न सका
मैंने कभी
आकाश को छूने की
कोशिश नहीं की
न कभी सागर को
मापना चाहा
न सूरज को
भर लेना चाहा बाहों में
न चाँद को
उतार लेना चाहा
थाली में
मैंने तो केवल
सामान्य आदमी की तरह
जीना चाहा
कभी प्रशंसा की
परवाह नहीं की
हाँ अपने दोष
जरूर तुम्हें सुनाऊँगा ।

हाँ
इतना जरूर चाहा
कोई मुझको
गले से लगा ले
कोई तो हो
जो मुझे पास बिठा ले
प्रेम के कह दे मीठे शब्द
भर ले अपनी बाहों में
लगा ले मुझे छाती से
मैं अपने अश्रुकण से
धो लूँगा उसके चरण
लगा लूँगा माथे पर चरण-रज
सच मानों मैं तर जाऊँगा

00000

31. हिले नहीं



चरण
हमने उनके
पखारे बहुत थे
मगर वे तो
अंगद के थे
कुछ हिले नहीं ।

बड़े ही
जतन से
उन्हें हमने
सींचा
वे ऐसे कमल थे
जरा भी
खिले नहीं ।

कई कोस
चलकर के
आये थे मिलने
मगर
एक पग भी
वे आगे
चले नहीं ।

बसाया था
हमने
उन्हें अपने
दिल में
मगर उनके
पाषाण
दिल थे
गले नहीं ।
00000

32. तुम्हारे गीत



तुम्हारे गीत
नशीले
गीत
गज़ब करते हैं।

तुम्हारे गीत
मेंहती-से
रचते हैं
गज़ब करते हैं।

तुम्हारे गीत
दुल्हन-से
सजते हैं
गज़ब करते हैं ।

तुम्हारे गीत
अधूरे गीत
अधरों में
पलते हैं
गज़ब करते हैं ।

तुम्हारे गीत
वीणा से
बजते हैं
गज़ब करते हैं ।

तुम्हारे गीत
घायल
कर जाते हैं
गज़ब करते हैं ।
00000

33. तुम्हारा प्यार



तुम्हारा प्यार
जैसे
रूप का
श्रृंगार ।

तुम्हारा प्यार
जैसे
प्रणय की
मनुहार ।

तुम्हारा प्यार
जैसे
खुशनुमा
संसार ।

तुम्हारा प्यार
जैसे
पायल की
झंकार ।

तुम्हारा प्यार
जैसे
बाहों का
हार

तुम्हारा प्यार
जैसे
सावन की
बहार

00000

34. तुम न आये



जोहती मैं बाट
सदियों से तुम्हारी
तुम न आये ।

आज काया
चाँद-सी
कुम्हला रही है
अभ्युदय से पूर्व
ढलती जा रही है
सींच दो
कुछ नेह
यादों की घड़ी है
बीन लो
काँटे
सुकोमल पंखुड़ी है
आ गया आकाश
तारों को सजाये

आज तक मैंने
कहाँ कुछ भी
कहा है
सिर्फ तेरी
याद में
दुख ही सहा है
आज ही सहा है
आज कुछ
साँसें
यहाँ बस शेष हैं

जो बचा है
समझ लो
अवशेष है
आज मेरे प्राण –
तुममें ही समाये ।
00000

35. बिटिया



अपनी नन्ही-सी
बिटिया की
किलकारी सुन
गूँज उठता है
तन-मन
खिल उठता है
पोर-पोर
तभी यह सोचकर
कि एक दिन
बिटिया विदा होगी
इस घर से,
द्वार से,
आँगन से,
सिहर उठता है, तन ।
00000

36. पर्वत शिखर दो


तुम ह्रदय की वेदना हो
और मैं अनुगूँज उसकी,
तुम ह्रदय की चेतना हो
और मैं अनुभूति उसकी ।


तुम सरोवर हो तो मैं
वह बूँद जो तुममें समायी,
तुम मेरे दिल में बसे
बोलो कहाँ मैं हूँ परायी ।


तुममें मुझमें बोलो अब
अन्तर कहाँ अब शेष है,
अब गले लग जाओ प्रियतम
मौन यह सन्देश है ।


तुम मुझे दिल से पुकारो
आसमाँ मे आऊँगी,
तुम मुझे दो शब्द दे दो
गीत मैं बन जाऊँगी।


तुममें मैं हूँ, मुझमें तुम हो
आत्मा भी एक है,
तुम मेरे आराध्य हो
आराधना भी एक है ।


तुम मुझे आकाश दो
अब में घटा बनकर चली,
तुम मुझे पर्वत शिखर दो
साँझ बनकर मैं ढली ।
00000

37. सूना शहर है

व्यस्त हैं सड़कें, हजारों लोग राहों पर खडे हैं,
एक बिन हमदर्द के, लगता है ये सूना शहर है ।


जिंदगी के मोड़ पर
यूँ लोग तो मिलते रहे हैं,
नील नभ में नित सितारे
फूल से खिलते रहे हैं।
एक भी मिलता है क्या, जिसको कि अपना कह सकोगे ,
भटकना मत और राही, शेष अब अंतिम प्रहर है।


आस्था विश्वास की
अब मिल गई नामो-निशानी ,
अति फरेबी हो गई है
हाय ! मूल्यों की कहानी ।
आज तो छल-छिद्र का, चहुँ ओर मायाजाल फैला,
जा रहा है राम अब, बनवास ही उसकी डगर है।


मत कहो हम आपके
दुख दर्द के भागी बनेंगे,
मत कहो तुम गर्व से
आदर्श अनुगामी बनेंगे ।
आइने में देख ली है, शक्ल हमने आपकी अब,
उठ रही फिर गिर रही, जैसे कि पानी की लहर है।
00000

38. जलती रहूँगी


इस निविड़ एकान्त तम में, दीप बन तुम जगमगाओ,
वर्तिका बन कर जलूँ मैं सर्वदा जलती रहूँगी ।

स्पन्दनों में बस रहे हो
रक्त का संचार हो तुम ,
देह की तुम आत्मा हो
नाव की पतवार हो तुम ।
लघु विटप नित स्नेह सिंचित, आज बरगद हो गया है,
वेदना-संवेदना में सँजोये साथ मैं चलती रहूँगी ।

जानती हूँ धन्य हूँ मैं
क्योंकि सम्बल है तुम्हारा,
प्रतिकूलता बाधा नहीं अब
मझधार भी लगती किनारा ।
बूँद को स्वाती बनाकर, तुमने मोती कर दिया है,
तुम वृह्द आकाश हो, मैं सुरभि बन छलती रहूँगी ।

गीत भी मैं रागिनि भी
बस हृदय के तार हो तुम,
हो तुम्हीं सिंदूर मेरा
देह के श्रृंगार हो तुम ।
इस हृदय की भावना को ,तुम भले समझो न समझो
बिलग रहकर भी तुम्हारे प्रेम में पलती रहूँगी ।
00000

39. चल दिये तुम

तृप्ति का आधार, जब बनना न था तो,
अधर पर अंगार रख, क्यों चल दिये तुम ।


कई सावन चल दिये
पर तृप्त कब मेरी पिपासा,
अब घटा की आस क्या
जब शेष है कोरी निराशा
सैकड़ों मधुमास बीते, मन रहा अतृप्त अब तक,
नयन में क्यों अश्रुसागर, आज भरकर चल दिये तुम ।


नेह के अनुबंध प्रेरित
पेड़ मैंने थे लगाये,
एक मेरे औ’ तुम्हारे
बीच में संबंध छाये ।
जो असिंचित रह गया हो, समझ लो निष्प्राण होगा,
क्या करे माली, व्यथा के बीज बोकर चल दिये तुम ।


रह गई अब सेज सूनी
कौन आलिंगन करेगा,
इस अगम संसार में है
कौन जो पीड़ा हरेगा ?
चाँदनी भी खो चुकी है, आज शीतलता न जाने,
जिंदगी बीरान करके, रूठ कर जब चल दिये तुम
00000

40.मंद-मंद दीपक जल

मंद-मंद दीपक जल !


दूर जा रहा पथिक
सैंकड़ों कोस ठिकाना है
अनजानी है राह
उसे मंजिल तक जाना है
अँधियारा पीकर भी उसके
संग चलो हर पल !
मंद-मंद दीपक जल !


कजरारे नयनों में देखो
मोती ढुलकाये
हूक एक उठ जाती जब-जब
प्रियतम घर आये
एक किरण की आस सँजोकर
चलता जा अविरल !
मंद-मंद दीपक जल !


याद किसी की जब-जब
कविता बनकर बह जाती
पीड़ाओं की अश्रुधार
है सागर कहलाती
दो हृदयों के पुनर्मिलन की
लिख दे एक ग़ज़ल !
मंद-मंद दीपक जल !
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41.वरदान हो तुम


तुम नयन की तृप्ति हो प्रिय, बाँसुरी की तान हो तुम,
तुम मेरे गीतों की लय हो, अधर की मुस्कान हो तुम ।

अमरता देकर मुझे तुम
स्वयं मत विषपान करना,
नभसरिस विस्तार देकर
स्वयं लघुता को न वरना ।
तोल पायेगा तुम्हारे, त्याग को क्या ये जमाना,
मैं समझता हूँ मगर, परिणाम से अनजान हो तुम ।

कर दिया तुमने समर्पण
बस मेरा विश्वास पाकर,
देहरी पर पग धरा है
एक मेरी आस पाकर ।
संग जीने संग मरने की कसम खाई थी हमने,
तुम हो मेरी वर्णमाला, या मेरी पहचान हो तुम ।

तुम बहुत ही पारखी हो
जानता है ये जमाना,
साथ ही तुम निष्कपट हो
रूप का भी हो खजाना ।
तुम हो पावन गंग जैसी, तीर्थ मेरी तुमसे कुटिया,
और चाहे जो कहें, मेरे वरदान हो तुम ।
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42. प्यार कर लूँ


याद को प्रियतम तुम्हारी, आज मैं आँचल में भर लूँ,
जरा-सी छवि देख लूँ, जी भर हृदय से प्यार कर लूँ ।

अनबुझी-सी प्यास
जाने आज कब से है समायी,
दीप जल जाते हृदय के
प्रिय जब-जब साँझ आयी ।
अंजुरी मे भर लिया है, मैंने सागर प्यार का,
मिलन की घड़ियों को प्रियतम, गगन-सा विस्तार कर लूँ ।

सब गये पल की कहानी
तुम्हें प्रियतम कह रही,
सजल नेत्रों से निरन्तर
आज गंगा बह रही ।
टूटता अब जा रहा है ,बाँध मेरे सब्र का,
समा जाऊँ धरा में, या प्रलय का सत्कार कर लूँ ।

छा गया है तिमिर
दिन की रोशनी यह कह गई,
चुक गया सब तेल
अब तो सिर्फ बाती रह गई ।
और खोता जा रहा है, आज सूरज रोशनी,
आस में मैं जिऊँ, या फिर मौत अंगीकार कर लूँ ।
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43.जीना दुश्वार हो गया

जिस दिन से तुम चले गये मेरे आँगन से,
उस दिन से जीना मेरा दुश्वार हो गया ।

दिन बीता तो लगता बीत गई हो सदियाँ
जाने कहाँ खो गई अब आँखों से निंदिया,
रातें अब खामोश, अश्रु से भीगी पलकें
भुल चुकी है जीवन की सारी रंगरलियाँ ।

जिस दिन से तुमने अपना संसार बसाया
उस दिन से ही मानो बेघराबार हो गया ।

सागर के तट पर रहकर प्यासा का प्यासा
एक अकेलेपन के कारण घोर निराशा,
सावन सूखा औ’ वसंत का अंत हो गया
जीवन में बाकी है केवल एक हताशा ।

जिस दिन से तुम छुड़ा गये हो बाहें अपनी ,
उस दिन से जीवन मेरा सुनसान हो गया ।

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44. अन्तिम इच्छा


एक छंद रख देना मेरी अरथी पर ।

बीत गया सावन, फिर भी प्यासा का प्यासा
कोसों तक मैं चला, हाथ में लगी निराशा,
जाने कितने गीत लिखे हैं साँझ-सवेरे
लेकिन सारे के सारे हैं आज अधूरे ।
जीवन अपना सफल मान लूँगा कविवर !
एक गीत रख देना मेरी अस्थी पर ।

सारा जीवन शब्दों की माला है बोयी
सारा जग सो जाता, नहीं लेखनी सोयी,
मेरा तो आराध्य यही मेरी थी पूजा
मेरी मंजिल यही, कहाँ ढूढूँ मैं दूजा ।

जीवन का अन्तिम पड़ाव है, साँसें अन्तिम ,
एक ग़ज़ल रख देना मेरी अरथी पर ।

मैंने सारा दर्द, स्वयं में आज संजोया
काट रहा हूँ वही आज, जिसको है बोया,
अस्ताचल में डूब रहा है सूरज देखो
मैंने भी तो सारा जीवन यूँ ही खोया

कौन क्षितिज के पार, आज आवाज दे रहा,

ज्योति, ज्योति में मिले, मिलन का क्षण आया लो,
एक शब्द रख देना मेरी अरथी पर ।
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