Tuesday, September 19, 2006

38. जलती रहूँगी


इस निविड़ एकान्त तम में, दीप बन तुम जगमगाओ,
वर्तिका बन कर जलूँ मैं सर्वदा जलती रहूँगी ।

स्पन्दनों में बस रहे हो
रक्त का संचार हो तुम ,
देह की तुम आत्मा हो
नाव की पतवार हो तुम ।
लघु विटप नित स्नेह सिंचित, आज बरगद हो गया है,
वेदना-संवेदना में सँजोये साथ मैं चलती रहूँगी ।

जानती हूँ धन्य हूँ मैं
क्योंकि सम्बल है तुम्हारा,
प्रतिकूलता बाधा नहीं अब
मझधार भी लगती किनारा ।
बूँद को स्वाती बनाकर, तुमने मोती कर दिया है,
तुम वृह्द आकाश हो, मैं सुरभि बन छलती रहूँगी ।

गीत भी मैं रागिनि भी
बस हृदय के तार हो तुम,
हो तुम्हीं सिंदूर मेरा
देह के श्रृंगार हो तुम ।
इस हृदय की भावना को ,तुम भले समझो न समझो
बिलग रहकर भी तुम्हारे प्रेम में पलती रहूँगी ।
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