Tuesday, September 19, 2006

05.पदचाप


एक दिन
आईं थीं तुम
दुल्हन बनकर
मेरे द्वार पर
सजकर
सँवरकर
आज तुम नहीं हो
तुम्हारी काया भी नहीं है
फिर भी
तुम्हारी
पदचाप
सुनाई दे रही है
आज भी
मेरे कानों को ।
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