Tuesday, September 19, 2006

41.वरदान हो तुम


तुम नयन की तृप्ति हो प्रिय, बाँसुरी की तान हो तुम,
तुम मेरे गीतों की लय हो, अधर की मुस्कान हो तुम ।

अमरता देकर मुझे तुम
स्वयं मत विषपान करना,
नभसरिस विस्तार देकर
स्वयं लघुता को न वरना ।
तोल पायेगा तुम्हारे, त्याग को क्या ये जमाना,
मैं समझता हूँ मगर, परिणाम से अनजान हो तुम ।

कर दिया तुमने समर्पण
बस मेरा विश्वास पाकर,
देहरी पर पग धरा है
एक मेरी आस पाकर ।
संग जीने संग मरने की कसम खाई थी हमने,
तुम हो मेरी वर्णमाला, या मेरी पहचान हो तुम ।

तुम बहुत ही पारखी हो
जानता है ये जमाना,
साथ ही तुम निष्कपट हो
रूप का भी हो खजाना ।
तुम हो पावन गंग जैसी, तीर्थ मेरी तुमसे कुटिया,
और चाहे जो कहें, मेरे वरदान हो तुम ।
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