Tuesday, September 19, 2006

27. दहेज



यह समाचार
पढ़कर
काँप उठता है मन
सिहर उठता है तन
आज फिर चढ़ा दी गई
एक बहू
दहेज की वेदी पर ।

जिन निर्मम हाथों ने
उस मासूम कली को
खिलने से पहले
तोड़ दिया
सुवासित होने से
पहले
मुरझा दिया
जिसने उगते हुए
सूरज को कभी
जी भर देखा नहीं
चाँद की शीतलता का
एहसास भी
नहीं कर पाई
उस मासूम
कोमल, सुकोमल
देह को
झोंक दिया
कधधकती ज्वाला में
दहेज,
सिर्फ़ दहेज की ख़ातिर ।

जिन पाशविक
हाथों ने
ऐसा कुकृत्य किया
क्या उन्हें कभी
इस बात का
एहसास हुआ होगा
कि उन्होंने
एक माँ से
उसकी बिटिया छीन ली
एक भाई से
उसकी बहन
एक पिता से
उसकी लाडली
एक मासूम से
उसका संसार ।

यदि हुआ है
तब भी
नहीं हुआ है
तब भी
इतिहास
कभी माफ़ नहीं करेगा
नहीं करेगा माफ़

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