Tuesday, September 19, 2006

28.परिवर्तन



आओ मेरे दोस्त
उस गाँव में ले चलूँ
जहाँ बीता था मेरा बचपन ।

जिन झाड़ों के नीचे
जिन झोपड़ियों के पीछे
जिन चबूतरों की ओट में
जिन बच्चों को समेटकर
खेलते थे गुल्ली डंडा
रेस टीप
आँख-मिचौनी
अब वहाँ
न कोई झाड़ है
न चबूतरा
न ही कोई झोपड़ी
न ही अब वहाँ
कोई बच्चा मचल रहा है
वहाँ तो बस
भीमकाय चिमनियाँ
अपना धुआँ उगल रही हैं ।
जिन अमराइयों से आती थी
मंद-मंद खुशबू
चलती थी ठंडी बयार
गोधूली में लौटती थीं
गायें
बंशी की तान सुनाते
ग्वाल बाल
अब वहाँ न गाय हैं
न बछड़े
न ही कोई वंशी की
तान ही सुनाई देती है
सुनाई देती है तो बस
बड़ी-बड़ी मशीनों की
आवाज़ें
शोर मचाती
ट्रकों की रफ़्तार
आओ मेरे दोस्त
उस गाँव में ले चलूँ
जहाँ बीता था मेरा बचपन

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