Tuesday, September 19, 2006
12. बढ़ो
बढ़ो
तुम्हारा मूर्य
बादलों से ढँक जाए
जीवनाकाश
उदास दिखाई दे
तब भी
धैर्य धरो
साहसी बीर
अंधकार चीरते
व्यवधानों को ललकारते ।
पंथान्वेषी साधक !
बढ़ो, आगे बढ़े
तुम्हारी विजय अवश्यंभावी है।
करो
साहस तो करो
पत्थर भी पिघल जाएगा
माऊन्ट एवरेस्ट की ऊँचाई भी
कोई ऊँचाई –
नहीं रह जायेगी ।
छुओ
उस मर्म को छुओ
जिसने तुम्हें निराश किया है
उसमें से निकलेगी एक प्रतिध्वनि !
रे मानव !
जो अंधकार से डर गया
समझ लो मर गया
बैठो
उस स्थान पर बैठो
जहाँ बुद्ध को मिला था
ज्ञान
बन सकते हो
तुम हो बुद्ध
महावीर
लेकिन
व्यर्थ गँवाये जा रहे हो
जीवन
भटक रहे हो शून्य में
गला रहे हो अपना
तन
सोचो
कुछ तो सोचो
क्या निराश होने का अर्थ
पलायन नहीं
कायरता नहीं
विवेकहीनता नहीं
निराशा
सिर्फ अकर्मण्यों के
शब्दकोश में होती है
उत्तरदायित्व के निर्वहन
न कर सकने की
क्षमता का ही नाम है
निराशा
इस निराशा को
मत आने दो
अपने जीवन में
करो
अपने उत्तरदायित्व का
निर्वहन तो करो ।
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