Tuesday, September 19, 2006

36. पर्वत शिखर दो


तुम ह्रदय की वेदना हो
और मैं अनुगूँज उसकी,
तुम ह्रदय की चेतना हो
और मैं अनुभूति उसकी ।


तुम सरोवर हो तो मैं
वह बूँद जो तुममें समायी,
तुम मेरे दिल में बसे
बोलो कहाँ मैं हूँ परायी ।


तुममें मुझमें बोलो अब
अन्तर कहाँ अब शेष है,
अब गले लग जाओ प्रियतम
मौन यह सन्देश है ।


तुम मुझे दिल से पुकारो
आसमाँ मे आऊँगी,
तुम मुझे दो शब्द दे दो
गीत मैं बन जाऊँगी।


तुममें मैं हूँ, मुझमें तुम हो
आत्मा भी एक है,
तुम मेरे आराध्य हो
आराधना भी एक है ।


तुम मुझे आकाश दो
अब में घटा बनकर चली,
तुम मुझे पर्वत शिखर दो
साँझ बनकर मैं ढली ।
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