Tuesday, September 19, 2006

16.वह बुढ़िया



बह बुढ़िया
आज भी आई है
मेरे द्वार
खाँसते हुए
खखारते हुए
लाठी टेकते हुए ।

मैले-कुचैले वस्त्र
धँसी हुई आँखें
पिचके हुये गाल
लट पड़े बाल
दे-दे भगवान के नाम पर
कहती हुई
आज भी आई है
मेरे द्वार ।

कभी-कभी सोचता हूँ
इसका भी कभी
रहा होगा बचपन
बड़े प्यार से
पाला होगा
इसके माता-पिता ने
हर ज़िद पूरी की होगी
गोदी में खिलाया होगा
पालने में झुलाया होगा
अच्छी से अच्छी लोरी –
सुनाई होगी इसकी माँ ने
बही आज
भटक रही है
दर-दर
द्वार-द्वार
ठोकरें खाते हुए
भीख माँगते हुए
सिहर उठा मेरा मन
काँप उठा संसार ।

कभी-कभी सोचता हूँ
यह भी कभी
जबान रही होगी
खूबसूरत रहा होगा
इसका भी चेहरा
सपने सँजोये होंगे
इसने भी सुनहरे
प्यार के संसार में
यह भी कभी –
डूबी-उतराई होगी
मिला होगा इसे भी
कोई जीवन-साथी
अच्छा-सा
संसार को खुशनुमा
देखा होगा
इसने भी कभी
वही संसार
दे रहा है आज पीड़ा
अपमान
तिरस्कार ।

कभी-कभी सोचता हूँ
क्या जीवन इसी का नाम है ?
हँस लो, खेलो
गाओ, मुस्कराओ
और
उसी बुढ़िया की भाँति
बन जाओ
बेदना हो रही है
अपार ।

00000

No comments: